यह जानकर गहरा आश्चर्य होता है कि 18 वीं शताब्दी में भारत की पहली अध्यापिका तथा सामाजिक क्रांति की अग्रदूत सावित्रीबाई फुले एक प्रखर, निर्भीक, चेतना सम्पन्न, तर्कशील, दार्शनिक, स्त्रीवादीख्याति प्राप्त लोकप्रिय कवयित्री, अपनी पूरी प्रतिभा और ताकत के साथ उपस्थित होती है लेकिन किसी की निगाह उन पर जातीभी नहीं? या फिर दूसरे शब्दों में कहूं तो उनके योगदान पर, मौन धारण कर लिया जाता है। सवाल है इस मौन का, अवहेलना और उपेक्षा का क्या कारण है? क्या इसका एकमात्र कारण उनका शूद्र तबके में जन्म लेना और दूसरा स्त्री होना माना जाए?सावित्रीबाई फुले का पूरा जीवन समाज के वंचित तबकों, खासकर स्त्री और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष और सहयोग में बीता। ज्योतिबा संग सावित्रीबाई फुले ने जब क्रूर ब्राह्मणी पेशवाराज का विरोध करते हुए,लड़कियों के लिए स्कूल खोलने से लेकर तत्कालीन समाज में व्याप्त तमाम दलित-शूद्र-स्त्री विरोधी सामाजिक, नैतिकऔर धार्मिक रूढ़ियों-आडंबरों-अंधविश्वासों के खिलाफ मजबूती से बढ-चढकर डंके की चोट पर जंगलड़ने की ठानी, तब इस जंग में दुश्मन के खिलाफ लडाई का एक मजबूत हथियार बना उनका स्वरचित साहित्य।इसका उन्होंने प्रतिक्रियावादी ताकतों को कड़ा जबाब देने के लिए बहुत खूबसूरती से इस्तेमाल किया। सावित्रीबाई फुले के साहित्य में उनकी कविताएं, पत्र, भाषण, लेख, पुस्तकें आदि शामिल है।
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कवयित्री सावित्रीबाई बाई फुले ने अपने जीवन काल में दो काव्य पुस्तकों की रचना की, जिनमें उनका पहलासंग्रह‘काव्य-फुले’ 1854 में तब छपा; जब वे मात्र तेईस वर्ष की ही थी। उनका दूसरा काव्य-संग्रह ‘बावनकशी सुबोधरत्नाकर’ 1891 में आया, जिसको सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवनसाथी ज्योतिबा फुले की परिनिर्वाण प्राप्ति के बाद उनकी जीवनी रूप में लिखा था।
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अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद का कट्टरतम रूप अपने चरमोत्कर्ष पर था। उस समय सवर्ण हिन्दू समाज और उसके ठेकेदारों द्वारा शूद्र, दलितों और स्त्रियों पर किए जा रहे अत्याचार-उत्पीड़न-शोषण की कोई सीमा नहीं थी। बाबा साहेब ने उस समय की हालत का वर्णन अपनी पुस्तक ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में करते हुए कहा है-‘पेशेवाओं के शासनकाल में, महाराष्ट्र में, इन अछूतों को उस सड़क पर चलने की आज्ञा नही थी, जिस पर कोई सवर्ण हिन्दू चल रहा हो। इनके लिए आदेश था कि अपनी कलाई में या गले में काला धागा बांधे, ताकि हिन्दू इन्हें भूल से भी ना छू लें। पेशवाओं की राजधानी पूना में तो इन अछूतों के लिए यह आदेश था कि ये कमर में झाडू बांधकर चलें, ताकि इनके पैरों के चिह्न झाडू से मिट जाएं और कोई हिन्दू इनके पद चिन्हों पर पैर रखकर अपवित्र न हो जाएं।अछूत अपने गले में हांडी बाँधकर चले और जब थूकना हो तो उसी में थूकें, भूमि पर पड़ें हुए अछूत के थूक पर किसी हिन्दू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र हो जाएगा’।
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ऐसी विपरित परिस्थितियों में सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1931 को महाराष्ट्र के सतारा जिला के एक छोटे से ग्राम नायगांव में हुआ। मात्र 9 साल की उम्र में ग्यारह साल के ज्योतिबाके संग ब्याह दी गई। केवल सत्रह वर्ष की उम्र में ही सावित्रीबाई ने बच्चियों के एक स्कूल की अध्यापिका और प्रधानाचार्या दोनों की भूमिका को सवर्ण समाज के द्वारा उत्पन्न अड़चनों से लड़ते हुए बडी ही लगन, विश्वास और सहजता से निभाया। समता, बंधुत्व, मैत्री और न्यायपूर्ण समाज की ल़डाई के लिए, सामाजिक क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए सावित्राबाई फुले ने साहित्य की रचना की। आज भी यह बात बहुत कम लोग जानते है कि वे एक सजग, तर्कशील, भावप्रवण, जुझारू औरक्रांतिकारी कवियित्री थी। मात्र 23 साल की उम्र में उनका पहला काव्य संग्रह काव्य-फुले आ गया था, जिसमें उन्होंने धर्म, धर्मशास्त्र, धार्मिक पाखंडों और कुरीतियों के खिलाफ जम कर लिखा। औरतों की सामाजिक स्थिति पर कविताएं लिखी और उनकी बुरी स्थिति के लिए जिम्मेदार धर्म, जाति, ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता पर कड़ा प्रहार किया। अपनी एक कविता में वे दलितों औऱ बहुजनों को समाज में बैठीअज्ञानता को पहचान कर, उसे पकड़कर कुचल- कुचल कर मारने के लिए कहती है क्योंकि यह अज्ञानता यानी अशिक्षा ही दलित बहुजन और स्त्री समाज की दुश्मन है। जिससे जानबूझकर सोची समझी साजिश के तहत वंचित समूह को दूर रखा गया है।
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उसका नाम है अज्ञान
उसे धर दबोचो, मजबूत पकड़कर पीटो
और उसे जीवन से भगा दो
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